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कंडे बेचकर आत्मनिर्भर हुईं 15 परिवारों की महिलाएं

छतरपुर: शहर के फूलादेवी मंदिर के पास स्थित एक मोहल्ले की 15 परिवारों की महिलाएं कंडे बनाने और बेचने के कारोबार से आत्मनिर्भर बन गई हैं। इस कारोबार की शुरुआत 20 साल पहले दो महिलाओं ने की थी, और आज यह एक छोटे उद्योग का रूप ले चुका है। अब इन परिवारों को सालभर में दो लाख रुपए तक की आय हो रही है।

सहोद्रा यादव ने 20 साल पहले कंडे बनाना शुरू किया था, और उनकी सफलता देखकर उनके परिवार के अन्य सदस्य और मोहल्ले के लोग भी इस काम में जुड़ गए। अब यह कारोबार 15 परिवारों तक फैल चुका है।

मांग और आपूर्ति का संतुलन: शहर में पूजा-पाठ, ईंट भट्टा और अंतिम संस्कार जैसी धार्मिक गतिविधियों के लिए कंडे की आवश्यकता होती है। कंडे बनाने के लिए महिलाएं गोबर और सूखा भूसा का इस्तेमाल करती हैं, जो आसानी से उपलब्ध हो जाता है। बारिश के मौसम में कंडे बनाने में दिक्कत होती है, इसलिए महिलाएं पहले से ही कंडों का स्टॉक कर लेती हैं।

घर के कामकाज से फ्री होकर कंडे बनाती हैं महिलाएं: मोहल्ले की महिलाएं घर के काम खत्म करने के बाद कंडे बनाती हैं। कुछ परिवारों के पास मवेशी होते हैं, जबकि अन्य लोग आवारा मवेशियों का गोबर एकत्र कर कंडे बनाते हैं। कंडे की कीमत 2 रुपए प्रति कंडा होती है, और लोग नियमित रूप से इन्हें खरीदने के लिए आते हैं।

यह कारोबार न सिर्फ इन महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बना चुका है, बल्कि यह पूरे समुदाय के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बन गया है। कंडे बनाने से इनकी आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है, और अब ये अपने परिवार की जरूरतें पूरी करने के साथ-साथ बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर भी ध्यान दे पा रही हैं।

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